देख , एक टुक उस कागज़ के टुकड़े को ,
तो कभी आसमान में उड़ती पतंग के मुखड़े को ,
मन में अजब सी उलझन जगी ,
ऐसा क्या इस पतंग में - जो यह नभ में भगी?
मैं बताऊँ ,
उसमें थी छिपी मेहनत , बनाने वाले की,
और
हौसला अफजाई उसे उडाने वाले की,
हवा के झोंकों में उड़ी, जैसे नाव तरंग में,
मैंने देखी वह पतंग , जिसके हौसले बुलंद थे.
मेहनत का कोई विकल्प नहीं होता है। सुन्दर रचना और शब्दों पर बारीक पकड़
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